Wednesday 7 June 2017



MY VILLAGE DHOSI HILL
लेख - जानिए ऋषि च्यवन की कहानी

आज इस लेख मे मैं ऋषि च्यवन की कहानी बताने जा रही हूँ ,जिन्होंने आँवला के उपर कई प्रकार के प्राकृतिक शोध करने के बाद यह प्रमाणित कर दिया कि आँवला मे कई स्वास्थ्यवर्धक गुण छिपे हुए हैं .साथ ही आँवला मानव के युवावस्था को लंबे समय तक बनाए रखने मे भी अतिउपयोगी है .
ऋषि च्यवन के पिता का नाम ऋषि भृगु और माता का नाम पुलोमा था . अपने पिता से आवश्यक शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी इनका मन आत्म ज्ञान पाने के लिए विचलित था. इसलिए वो माता - पिता को छोड़कर आत्म ज्ञान प्राप्त करने वन मे चले गए .कई दशक गुजर जाने के बाद भी च्यवन जी एक ही जगह पर स्थिर होकर अपनी तपस्या मे लीन रहें . उनके शरीर मे चीटीं और दीमक ने घर बना लिया था .पूरा शरीर उनका मिट्टी का टीला बन चुका था.एक दिन राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या उस वन मार्ग से गुजर रही थी ,तो उसकी नजर उस टीले पर पड़ी .टीले मे उसे दो छिद्र दिखाई पड़ा ,जो कि ऋषि च्यवन की दो आँखें थी . जिज्ञासावश सुकन्या ने उन दोनों छिद्रों मे कांटे गड़ा दिए .कांटा गड़ते ही खून बहने लगा .शरीर के ऊपर बने मिट्टी के टीले को तोड़कर च्यवन ऋषि खड़े हो गए .उनकी तपस्या भंग हो चुकी थी . वो क्रोध मे आग -बबूला हो उठे . उन्हें अहसास हो चुका था कि वो अंधे हो चुके हैं . उनके क्रोध से घबड़ाकर सुकन्या भी मूर्छित हो गई .तभी राजा शर्याति ने च्यवन ऋषि के क्रोध को शांत करने के उद्देश्य से अपनी सोलह वर्षीय पुत्री का विवाह ऋषि च्यवन के साथ करने का निर्णय लिया .वृद्ध ऋषि च्यवन जी का विवाह सोलह वर्षीय कन्या के साथ हो गया .सुकन्या ने अपनी निष्ठापूर्ण सेवाभाव से च्यवन जी का क्रोध शांत कर दिया . ऋषि च्यवन जी हार्दिक इच्छा थी कि उन्हें अपनी पत्नी से एक पुत्र प्राप्त हो . वृद्ध पति की इच्छा पूरी करने के लिए सुकन्या मान भी गई ,किन्तु मन ही मन मे उनकी इच्छा थी कि उनके पति उनकी तरह युवा हो जाए.
एक बार देवताओं के वैध अशिवनी कुमार जी ऋषि च्यवन के आश्रम मे आए ,तो च्यवन जी उनका खूब आदर - सत्कार किए . खुश होकर अशिवनी जी ने उन्हें
वरदान मांगने को कहा .वरदान मे च्यवन जी ने उनसे अपनी युवावस्था को वापस लौटाने का वरदान माँगा . वैध अशिवनी जी ने च्यवन जी की युवावस्था को वापस लाने के लिए तीन प्रकार का उपचार किया . पहले चरण मे उन्होंने एक तालाब( जिसका नाम चन्द्र्कुप है .यह तालाब हरियाणा और राजस्थान की सीमा पर स्थित ढ़ोसी पर्वत पर आज भी है ) मे कुछ जड़ी - बूटियों को डाला और उसमे च्यवन जी को स्नान करवाया . दूसरे चरण मे जड़ी - बूटी का लेप लगाया और अंतिम चरण मे एक खास जड़ी - बूटी को दवा के रूप मे सेवन करने को दिया . तीनों चरण के उपचार के पश्चात् ऋषि च्यवन की युवावस्था लौट आई .
वैध अशिवनी जी से च्यवन जी ने जो जड़ी - बूटी के बीज प्राप्त किया उसे बो दिया और संकल्प लिया कि वो अपना सारा जीवन आयुर्वेद के अनुसंधान मे लगा देंगे , ताकि मनुष्य को वो आयुर्वेद द्वारा स्वस्थ जीवन और युवावस्था को लंबे समय तक बनाए रखने के लिए प्रेरित कर सके .च्यवन जी ने जो बीज बोया था , वो कुछ वर्ष बाद एक वृक्ष के रूप मे बड़ा हो गया और उस वृक्ष पर जो फल लगा ,उसे आयुर्वेद मे दिव्य फल ' आँवला ' कहा गया . ऋषि च्यवन जी बहुत लम्बे समय तक इस दिव्य फल की उपयोगिता पर शोध करते रहें और कई वर्षों के बाद आयुर्वेद की प्रसिद्ध दवा च्यवनप्राश का आविष्कार किया . इस च्यवनप्राश मे अस्सी जड़ी - बूटियों के साथ - साथ आँवले का भुर्ता भी शामिल है . यानि की आज से दस हजार साल पहले ढ़ोसी पर्वत पर ऋषि च्यवन जी के आश्रम मे उनके अथक प्रयास से च्यवनप्राश का आविष्कार हुआ ,जो आज भारतीय परिवार मे सचमुच मे एक स्वास्थवर्धक टॉनिक के रूप मे जाना जाता है .
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2016-07-07
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Monday 10 October 2016






➡ सिर्फ 5 मिनट में सरदर्द गायब :
  • नाक के दो हिस्से हैं। दायाँ स्वर और बायां स्वर, जिनसे हम सांस लेते और छोड़ते हैं, पर यह बिल्कुल अलग - अलग असर डालते हैं और आप फर्क महसूस कर सकते हैं।
  • दाहिना नासिका छिद्र "सूर्य" की तरह गर्म और बायां नासिका छिद्र "चन्द्र" की तरह शीतल लक्षण को दर्शाता है अर्थात ये दोनों नासिका छिद्र क्रमशः सूर्य व चन्द्रमा का प्रतिनिधित्व करते हैं। www.allayurvedic.org
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Thursday 28 July 2016


सिद्धासन

पद्मासन के बाद सिद्धासन का स्थान आता है। अलौकिक सिद्धियाँ प्राप्त करने वाला होने के कारण इसका नाम सिद्धासन पड़ा है। सिद्ध योगियों का यह प्रिय आसन है। यमों में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ हैनियमों में शौच श्रेष्ठ है वैसे आसनों में सिद्धासन श्रेष्ठ है।
ध्यान आज्ञाचक्र में और श्वास, दीर्घस्वाभाविक।

विधिः आसन पर बैठकर पैर खुले छोड़ दें। अब बायें पैर की एड़ी को गुदा और जननेन्द्रिय के बीच रखें। दाहिने पैर की एड़ी को जननेन्द्रिय के ऊपर इस प्रकार रखें जिससे जननेन्द्रिय और अण्डकोष के ऊपर दबाव न पड़े। पैरों का क्रम बदल भी सकते हैं। दोनों पैरों के तलुवे जंघा के मध्य भाग में रहें। हथेली ऊपर की ओर रहे इस प्रकार दोनों हाथ एक दूसरे के ऊपर गोद में रखें। अथवा दोनों हाथों को दोनो घुटनों के ऊपर ज्ञानमुद्रा में रखें। आँखें खुली अथवा बन्द रखें। श्वासोच्छोवास आराम से स्वाभाविक चलने दें। भ्रूमध्य में, आज्ञाचक्र में ध्यान केन्द्रित करें। पाँच मिनट तक इस आसन का अभ्यास कर सकते हैं। ध्यान की उच्च कक्षा आने पर शरीर पर से मन की पकड़ छूट जाती है।
लाभः सिद्धासन के अभ्यास से शरीर की समस्त नाड़ियों का शुद्धिकरण होता है। प्राणतत्त्व स्वाभाविकतया ऊर्ध्वगति को प्राप्त होता है। फलतः मन को एकाग्र करना सरल बनता है।
पाचनक्रिया नियमित होती है। श्वास के रोगहृदय रोग, जीर्णज्वर, अजीर्ण,अतिसार, शुक्रदोष आदि दूर होते हैं। मंदाग्नि, मरोड़ासंग्रहणी, वातविकार,क्षयदमा, मधुप्रमेह, प्लीहा की वृद्धि आदि अनेक रोगों का प्रशमन होता है। पद्मासन के अभ्यास से जो रोग दूर होते हैं वे सिद्धासन के अभ्यास से भी दूर होते हैं।
ब्रह्मचर्य-पालन में यह आसन विशेष रूप से सहायक होता है। विचार पवित्र बनते हैं। मन एकाग्र होता है। सिद्धासन का अभ्यासी भोग-विलास से बच सकता है। 72 हजार नाड़ियों का मल इस आसन के अभ्यास से दूर होता है। वीर्य की रक्षा होती है। स्वप्नदोष के रोगी को यह आसन अवश्य करना चाहिए।
योगीजन सिद्धासन के अभ्यास से वीर्य की रक्षा करके प्राणायाम के द्वारा उसको मस्तिष्क की ओर ले जाते हैं जिससे वीर्य ओज तथा मेधाशक्ति में परिणत होकर दिव्यता का अनुभव करता है। मानसिक शक्तियों का विकास होता है।
कुण्डलिनी शक्ति जागृत करने के लिए यह आसन प्रथम सोपान है।
सिद्धासन में बैठकर जो कुछ पढ़ा जाता है वह अच्छी तरह याद रह जाता है। विद्यार्थियों के लिए यह आसन विशेष लाभदायक है। जठराग्नि तेज होती है। दिमाग स्थिर बनता है जिससे स्मरणशक्ति बढ़ती है।
आत्मा का ध्यान करने वाला योगी यदि मिताहारी बनकर बारह वर्ष तक सिद्धासन का अभ्यास करे तो सिद्धि को प्राप्त होता है। सिद्धासन सिद्ध होने के बाद अन्य आसनों का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। सिद्धासन से केवल या केवली कुम्भक सिद्ध होता है। छः मास में भी केवली कुम्भक सिद्ध हो सकता है और ऐसे सिद्ध योगी के दर्शन-पूजन से पातक नष्ट होते हैं,मनोकामना पूर्ण होती है। सिद्धासन के प्रताप से निर्बीज समाधि सिद्ध हो जाती है। मूलबन्ध, उड्डीयान बन्ध और जालन्धर बन्ध अपने आप होने लगते हैं।
सिद्धासन जैसा दूसरा आसन नहीं है, केवली कुम्भक के समान प्राणायाम नहीं है, खेचरी मुद्रा के समान अन्य मुद्रा नहीं है और अनाहत नाद जैसा कोई नाद नहीं है।
सिद्धासन महापुरूषों का आसन है। सामान्य व्यक्ति हठपूर्वक इसका उपयोग न करेंअन्यथा लाभ के बदले हानि होने की सम्भावना है।

पद्मासन या कमलासन

इस आसन में पैरों का आधार पद्म अर्थात कमल जैसा बनने से इसको पद्मासन या कमलासन कहा जाता है। ध्यान आज्ञाचक्र में अथवा अनाहत चक्र में। श्वास रेचककुम्भक, दीर्घ, स्वाभाविक।
विधिः बिछे हुए आसन के ऊपर स्वस्थ होकर बैठें। रेचक करते करते दाहिने पैर को मोड़कर बाँई जंघा पर रखें। बायें पैर को मोड़कर दाहिनी जंघा पर रखें। अथवा पहले बायाँ पैर और बाद में दाहिना पैर भी रख सकते हैं। पैर के तलुवे ऊपर की ओर और एड़ी नाभि के नीचे रहे। घुटने ज़मीन से लगे रहें। सिर, गरदनछाती, मेरूदण्ड आदि पूरा भाग सीधा और तना हुआ रहे। दोनों हाथ घुटनों के ऊपर ज्ञानमुद्रा में रहे। (अँगूठे को तर्जनी अँगुली के नाखून से लगाकर शेष तीन अँगुलियाँ सीधी रखने से ज्ञानमुद्रा बनती है।) अथवा बायें हाथ को गोद में रखें। हथेली ऊपर की और रहे। उसके ऊपर उसी प्रकार दाहिना हाथ रखें। दोनों हाथ की अँगुलियाँ परस्पर लगी रहेंगी। दोनों हाथों को मुट्ठी बाँधकर घुटनों पर भी रख सकते हैं।
रेचक पूरा होने के बाद कुम्भक करें। प्रारंभ में पैर जंघाओँ के ऊपर पैर न रख सकें तो एक ही पैर रखें। पैर में झनझनाहट होक्लेश हो तो भी निराश न होकर अभ्यास चालू रखें। अशक्त या रोगी को चाहिए कि वह ज़बरदस्ती पद्मासन में न बैठे। पद्मासन सशक्त एवं निरोगी के लिए है। हर तीसरे दिन समय की अवधि एक मिनट बढ़ाकर एक घण्टे तक पहुँचना चाहिए।
दृष्टि नासाग्र अथवा भ्रूमध्य में स्थिर करें। आँखें बंद, खुली या अर्ध खुली भी रख सकते हैं। शरीर सीधा और स्थिर रखें। दृष्टि को एकाग्र बनायें।
भावना करें कि मूलाधार चक्र में छुपी हुई शक्ति का भण्डार खुल रहा है। निम्न केन्द्र में स्थित चेतना तेज और औज़ के रूप में बदलकर ऊपर की ओर आ रही है। अथवा, अनाहत चक्र (हृदय) में चित्त एकाग्र करके भावना करें कि हृदयरूपी कमल में से सुगन्ध की धाराएँ प्रवाहित हो रही हैं। समग्र शरीर इन धाराओं से सुगन्धित हो रहा है।

लाभः प्राणायाम के अभ्यासपूर्वक यह आसन करने से नाड़ीतंत्र शुद्ध होकर आसन सिद्ध होता है। विशुद्ध नाड़ीतंत्र वाले योगी के विशुद्ध शरीर में रोग की छाया तक नहीं रह सकती और वह स्वेच्छा से शरीर का त्याग कर सकता है।
पद्मासन में बैठने से शरीर की ऐसी स्थिति बनती है जिससे श्वसन तंत्र,ज्ञानतंत्र और रक्ताभिसरणतंत्र सुव्यवस्थित ढंग के कार्य कर सकते हैं। फलतः जीवनशक्ति का विकास होता है। पद्मासन का अभ्यास करने वाले साधक के जीवन में एक विशेष प्रकार की आभा प्रकट होती है। इस आसन के द्वारा योगी, संतमहापुरूष महान हो गये हैं।
पद्मासन के अभ्यास से उत्साह में वृद्धि होती है। स्वभाव में प्रसन्नता बढ़ती है। मुख तेजस्वी बनता है। बुद्धि का अलौकिक विकास होता है। चित्त में आनन्द-उल्लास रहता है। चिन्ताशोक, दुःखशारीरिक विकार दब जाते हैं। कुविचार पलायन होकर सुविचार प्रकट होने लगते हैं। पद्मासन के अभ्यास से रजस और तमस के कारण व्यग्र बना हुआ चित्त शान्त होता है। सत्त्वगुण में अत्यंत वृद्धि होती है। प्राणायाम, सात्त्विक मिताहार और सदाचार के साथ पद्मासन का अभ्यास करने से अंतःस्रावी ग्रंथियों को विशुद्ध रक्त मिलता है। फलतः व्यक्ति में कार्यशक्ति बढ़ने से भौतिक एवं आध्यात्मिक विकास शीघ्र होता है। बौद्धिक-मानसिक कार्य करने वालों के लिए, चिन्तन मनन करने वालों के लिए एव विद्यार्थियों के लिए यह आसन खूब लाभदायक है। चंचल मन को स्थिर करने के लिए एवं वीर्यरक्षा के लिए या आसन अद्वितिय है।
श्रम और कष्ट रहित एक घण्टे तक पद्मासन पर बैठने वाले व्यक्ति का मनोबल खूब बढ़ता है। भाँगगाँजा, चरसअफीम, मदिरातम्बाकू आदि व्यसनों में फँसे हुए व्यक्ति यदि इन व्यसनों से मुक्त होने की भावना और दृढ़ निश्चय के साथ पद्मासन का अभ्यास करें तो उनके दुर्व्यसन सरलता से और सदा के लिए छूट जाते हैं। चोरीजुआ, व्यभिचार या हस्तदोष की बुरी आदत वाले युवक-युवतियाँ भी इस आसन के द्वारा उन सब कुसंस्कारों से मुक्त हो सकते हैं।
कुष्ठ, रक्तपित्त, पक्षाघात, मलावरोध से पैदा हुए रोग, क्षयदमा, हिस्टीरिया,धातुक्षयकैन्सर, उदरकृमि, त्वचा के रोग, वात-कफ प्रकोप, नपुंसकत्व,वन्धव्य आदि रोग पद्मासन के अभ्यास से नष्ट हो जाते हैं। अनिद्रा के रोग के लिए यह आसन रामबाण इलाज है। इससे शारीरिक मोटापन कम होता है। शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए यह आसन सर्वोत्तम है।
पद्मासन में बैठकर अश्विनी मुद्रा करने अर्थात गुदाद्वार का बार-बार संकोच प्रसार करने से अपानवायु सुषुम्ना में प्रविष्ट होता है। इससे काम विकार पर जय प्राप्त होने लगती है। गुह्योन्द्रिय को भीतर की ओर सिकोड़ने से अर्थात योनिमुद्रा या वज्रोली करने से वीर्य उर्ध्वगामी होता है। पद्मासन में बैठकर उड्डीयान बन्धजालंधर बन्ध तथा कुम्भक करके छाती एवं पेट को फुलाने कि क्रिया करने से वक्षशुद्धि एवं कण्ठशुद्धि होती है। फलतः भूख खुलती है, भोजन सरलता से पचता है, जल्दी थकान नहीं होती। स्मरणशक्ति एवं आत्मबल में वृद्धि होती है।
यम-नियमपूर्वक लम्बे समय तक पद्मासन का अभ्यास करने से उष्णता प्रकट होकर मूलाधार चक्र में आन्दोलन उत्पन्न होते हैं। कुण्डलिनी शक्ति जागृत होने की भूमिका बनती है। जब यह शक्ति जागृत होती है तब इस सरल दिखने वाले पद्मासन की वास्तविक महिमा का पता चलता है। घेरण्ड,शाण्डिल्य तथा अन्य कई ऋषियों ने इस आसन की महिमा गायी है। ध्यान लगाने के लिए यह आसन खूब लाभदायक है।
इदं पद्मासनं प्रोक्तं सर्वव्याधिविनाशम्।
दुर्लभं येन केनापि धीमता लभ्यते भुवि।।
इस प्रकार सर्व व्याधियों को विनष्ट करने वाले पद्मासन का वर्णन किया। यह दुर्लभ आसन किसी विरले बुद्धिमान पुरूष को ही प्राप्त होता है।

पादपश्चिमोत्तानासन


यह आसन करना कठिन हैइसलिए इसे उग्रासन कहाजाता है  उग्र का अर्थ है शिव भगवान शिव संहारकत्र्ता हैंअतः उग्र या भयंकर हैं शिवसंहिता में भगवान शिवने मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करतेहुए कहा  है : ‘‘यह आसनसर्वश्रेष्ठ आसन है  इसकोप्रयत्नपूर्वक गुप्त रखें  सिर्फअधिकारियों को ही इसका रहस्य बतायें 
ध्यान मणिपुर चक्र में  श्वास प्रथम स्थिति में पूरक और दूसरी स्थिति मेंरेचक और फिर बहिर्कुम्भक 
विधि : बिछे हुए आसन पर बैठ जायें  दोनों पैरों को लम्बे फैला दें। दोनों पैरोंकी जंघाघुटनेपंजे परस्पर मिले रहें और जमीन के साथ लगे रहें  पैरों कीअंगुलियाँ घुटनों की तरफ झुकी हुई रहें  अब दोनों हाथ लम्बे करें  दाहिनेहाथ की तर्जनी और अँगूठे से दाहिने पैर का अंगूठा और बायें हाथ कीतर्जनी और अँगूठे से बायें पैर का अँगूठा पकडें  अब रेचक करते-करतेनीचे झुकें और सिर को दोनों घुटनों के मध्य में रखें  ललाट घुटने को स्पर्शकरे और घुटने जमीन से लगे रहें। हाथ की दोनों कुहनियाँ घुटनों के पासजमीन से लगें  रेचक पूरा होने पर कुम्भक करें  दृष्टि एवं चित्तवृत्ति कोमणिपुर चक्र में स्थापित करें। प्रारम्भ में आधा मिनट करके क्रमशः १५मिनट तक यह आसन करने का अभ्यास बढाना चाहिए  प्रथम दो-चारदिन कठिन लगेगा लेकिन अभ्यास हो जाने पर यह आसन सरल होजायेगा 
लाभ : पादपश्चिमोत्तानासन के सम्यक् अभ्यास से सुषुम्ना का मुख खुलजाता है और प्राण मेरुदण्ड के मार्ग में गमन करता हैफलतः बिन्दु कोजीत सकते हैं  बिन्दु को जीते बिना  समाधि सिद्ध होती है  वायु स्थिरहोता है  चित्त शान्त होता है  जो स्त्री-पुरुष कामविकार से अत्यंत पीिडतहों उन्हें इस आसन का अभ्यास करना चाहिए  इससे शारीरिक एवंमानसिक विकार दब जाते हैं  उदरछाती और मेरुदण्ड को उत्तम कसरतमिलती है अतः वे अधिक कार्यक्षम बनते हैं  हाथपैर तथा अन्य अंगों केसन्धिस्थान मजबूत बनते हैं  शरीर के सब तन्त्र बराबर कार्यशील होते हैं रोग मात्र का नाश होकर स्वास्थ्य का साम्राज्य स्थापित होता है  इसआसन के अभ्यास से मन्दाग्निमलावरोधअजीर्णउदररोगकृमिविकार,सर्दीखाँसीवातविकारकमर का दर्दहिचकीकोढमूत्ररोग,  मधुप्रमेह, पैर के रोग,  स्वप्नदोष,  वीर्यविकार,  रक्तविकारएपेन्डीसाइटिस,अण्डवृद्धिपाण्डुरोगअनिद्रादमाखट्टी डकारें आनाज्ञानतन्तु  कीदुर्बलता,  बवासीर,  नल की सूजन,  गर्भाशय के रोगअनियमित  तथाकष्टदायक मासिक,  ब्नध्यत्व,  प्रदर,  नपुंसकतारक्तपित्तसिरोवेदना,बौनापन आदि अनेक रोग दूर होते हैं  जठराग्नि प्रदीप्त होती है  कफ औरचरबी नष्ट होते हैं  पेट पतला बनता है  शिवसंहिता में कहा है कि इसआसन से वायूद्दीपन होता है और वह मृत्यु का नाश करता है  इस आसनसे शरीर का कद बढता है। शरीर में अधिक स्थूलता हो तो कम होती है दुर्बलता हो तो दूर होकर शरीर सामान्य तन्दुरुस्त अवस्था में  जाता है नाडीसंस्थान में स्थिरता आती है  मानसिक शान्ति प्राप्त होती है  चिन्ताएवं उत्तेजना शान्त करने के लिए यह आसन उत्तम है  पीठ और मेरुदण्डपर qखचाव आने से वे दोनों विकसित होते हैं  फलतः शरीर के तमामअवयवों पर अधिकार स्थापित होता है  सब आसनों में यह आसनसर्वप्रधान है  इसके अभ्यास से कायाकल्प (परिवर्तनहो जाता है  यहआसन भगवान शिव को बहुत प्यारा है  उनकी आज्ञा से योगी गोरखनाथने लोककल्याण हेतु इसका प्रचार किया है  आप इस आसन के अद्भुतलाभों से लाभान्वित हों और दूसरों को भी सिखायें। पादपश्चिमोत्तानासनपूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू को भी बहुत प्यारा है  इससे पूज्यश्रीको बहुत लाभ हुए हैं  अभी भी यह आसन उनकी आरोग्यनिधि का रक्षकबना हुआ है  पाठक भाइयों ! आप अवश्य इस आसन का लाभ लेना प्रारम्भ के चार-पाँच दिन जरा कठिन लगेगा  बाद में तो यह आसनआपको शिवजी के वरदान रूप आरोग्य कवच सिद्ध हुए बिना 

मयूरासन

इस आसन में मयूर अर्थात्मोर की आकृति बनती हैइससे इसे मयूरासन कहाजाता है  ध्यान मणिपुरचक्र में  श्वास बाह्य कुम्भक 
विधि : जमीन पर घुटनेटिकाकर बैठ जायें  दोनोंहाथ की हथेलियों को जमीनपर इस प्रकार रखें कि सबअंगुलियाँ पैर की दिशा में होंऔर परस्पर लगी रहें  दोनों कुहनियों को मोडकर पेट के
 कोमल भाग परनाभि के इर्दगिर्द रखें  अब आगे झुककर दोनों पैर कोपीछ की ओर लम्बे करें  श्वास बाहर निकालकर दोनों पैर को जमीन सेऊपर उठायें और सिर का भाग नीचे झुकायें  इस प्रकार पूरा शरीर जमीनके बराबर समानान्तर रहे ऐसी स्थिति बनायें  संपूर्ण शरीर का वजनकेवल दो हथेलियों पर ही रहेगा  जितना समय रह सकें उतना समय इसस्थिति में रहकर फिर मूल स्थिति में  जायें  इस प्रकार दो-तीन बार करें लाभ : मयूरासन करने से ब्रह्मचर्य-पालन में सहायता मिलती  है। पाचनतन्त्र के अंगों की ओर रक्त का प्रवाह अधिक बढने से वे अंग बलवान औरकार्यशील बनते हैं  पेट के भीतर के भागों में दबाव पडने से उनकी शक्ति भीबढती है  उदर के अंगों की शिथिलता और मन्दाग्नि दूर करने में मयूरासनबहुत उपयोगी है