Thursday 22 January 2015

डेस्टिनी डिजाइनिंग

डेस्टिनी डिजाइनिंग


'गर्भ में आप सोते रहे और फिर समाधि में भी आप सोते ही रहोगे। इन दो घटनाओं के बीच आपके पास यह जिंदगी है जीने के लिए और यहां भी क्या आप सोते ही रहना चाहते हो?'-

- महात्रया रा

सुबह की ताजी हवा लेना भी अपने आपमें एक खास अनुभव है। सुबह-सुबह ओस की बूंदों से नहाई हरियाली की चमक ऐसा दृश्य है, जिसे हर कोई अपने दिल के पास रखना चाहेगा। ताजा खिली कलियों की खूबसूरती को देखना ही एक अध्यात्मिक अनुभव है। खुले आकार में उड़ रहे पक्षियों और उनका समन्वय बेजोड़ है। पेड़ों की टहनियों पर बैठे पक्षियों का कलवर किसी मधुर संगीत की तरह कानों में बजता है, जो संगीत का गूढ़ ज्ञान न रखने वाला भी आसानी से महसूस कर सकता है। यदि आप प्राणियों को उत्साह और उमंग के साथ देखना चाहते हो, तो वह दिन का यही समय है। इतना ही नहीं बिल्ली और कुत्ते के बच्चों, बछड़ों को भी हवा में उछलते, गुलाटी लगाते देखा जा सकता है। चमगादड़ी जीवन जीने वालों के लिए भी यह पैक-ऑफ का समय होता है। आप बड़े पेड़ों और मोटी टहनियों के झुरमुट में चले जाएं तो वहां भी छोटे-छोटे कीटों का शोर सुनाई देगा, जो दिनभर काम पर लगने के लिए तैयार हैं। उसकी पृष्ठभूमि में एक गतिविधि साथ-साथ चलती रहती है। रात दिन में और दिन रात में तब्दील होता जाता है। आसमान में नारंगी गेंद उभरती है, जो सभी ऊर्जा के सभी स्रोतों का स्रोत है। धीरे-धीरे आसमान का रंग बदलता है। गेंद भी रंग बदलते हुए नारंगी से पीली होती जाती है। यह ही भोर है। एक नए दिन का जन्म।

भोर हर दिन होने वाली घटना है, लेकिन कभी दोहराती नहीं है। हर भोर अपने आप में खास होती है। अस्तित्व की सृजनात्मक असीम नजर आने लगती है। उसने हर भोर के लिए अलग डिजाइन बना रखा है। भोर में चमत्कृत कर देने वाली सृजनात्मकता भरकर ईश्वर आपको अपने चमत्कार का अनुभव कराता है। हर नए दिन के जन्म के समय मौजूद रहना भी तरक्की का अनुभव है।

'भोर' जीवन के सभी प्रकारों को जाग जाने को कहती है। अस्तित्व अपने सुखबोध में होता है और जीवन के हर प्रकार के लिए यह पार्टी टाइम होता है। चूंकि पूरी सृष्टि ही इस जश्न में शरीक हो रही है, इस वजह से सभी प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ मनुष्य का भी इसमें शामिल होना अंतर्निहित है।

ज्यादातर घरों में बच्चे रात को जल्दी सो जाते हैं। सुबह वे अपने हाथ-पैर सभी दिशाओं में पटकने लगते हैं। यह दिखाता है कि वे एक नए दिन के जन्म की घटना का साक्षी बनना चाहते हैं। भोर के समय जाग जाना सृष्टि के प्रत्येक जीव की जिंदगी का हिस्सा है, इसलिए बच्चे भी इससे अलग कैसे रह सकते हैं। उनके मां-बाप रात को देर से सोए थे। उन्हें सुबह कोई काम नहीं है। उठने की कोशिश कर रहे बच्चे को थपकी मारकर वे सो जाने को कहते हैं। असहाय बच्चा सो जाता है। यह जिंदगीभर सोने की शुरुआत है। जो हर मां-बाप अपने बच्चे को देता है।

गर्भ में आप सोते रहे और फिर समाधि में भी आप सोते ही रहोगे। इन दो घटनाओं के बीच आपके पास यह जिंदगी है जीने के लिए और यहां भी क्या आप सोते ही रहना चाहते हो? पूरी रात सोने से हमारे अंदर एक नई ऊर्जा का सृजन होता है, लेकिन हम उसे सुबह के दैनिक क्रियाकलापों पर ही खर्च कर देते हैं। तरक्की और विकास के लिए इसे चैनलाइज नहीं करते। यदि आप शारीरिक व्यायाम करना चाहते हैं तो सुबह का समय सबसे अच्छा होता है। इसके अलावा शरीर की कंडीशनिंग के लिए शारीरिक मेटाबॉलिज्म सुबह के समय ही सबसे उपयुक्त होता है। साथ ही यही वह समय होता है जब आप साफ-सुथरी बिना प्रदूषण वाली हवा का सेवन कर सकते हैं।

पढऩे और सीखने के लिए भी सुबह का समय सबसे अच्छा होता है। आप पर कोई बाहरी व्यवधान हावी नहीं होता। अंदर से भी आप मानसिक बेचैनी से मुक्त होते हो। जो बाद में दिनभर में आपके दिमाग में पनपती जाती है। दिन के शुरुआती कुछ घंटों में पढ़ा हुआ ज्यादा समय तक याद रहता है।

यदि आप अध्यात्मिक दिशा में आगे बढऩा चाहते हैं तो भी सुबह का समय सबसे अच्छा होता है। मानवीय इंद्रिया भी इतनी जल्दी सक्रिय नहीं हो पाती, इसलिए मनुष्य इन इंद्रियों के व्यवधान से भी मुक्त रहता है। आपका पेट तकरीबन खाली रहता है और इससे आप उन गतिहीन अनुभवों को आदत में शामिल कर सकते हैं, जो आप चाहते हैं। अपने शरीर को श्रेष्ठ बनाने की ओर ले जाने के लिए यह समय सबसे उपयुक्त होता है।

किसी भी प्राणी का जीवनकाल दो टर्मिनल्स के बीच का वक्त होता है- जन्म और मृत्यु। जन्म का समय हमारे हाथ में नहीं है और न ही मृत्यु का। इस तरह हमारा जीवनकाल भी हमारे हाथ में नहीं है। जीवनकाल में से हमारे नींद के वक्त को घटाने से ही हम पता लगा सकेंगे कि हमने जिंदगी को जानने-समझने के लिए कितना वक्त जागकर बिताया। क्या हम अपनी नींद के वक्त को घटाकर जिंदगी को अनुभव करने यानी जागने के वक्त को बढ़ा नहीं सकते? क्या आप जानते हैं कि यदि आपने दो घंटे कम सोना शुरू कर दिया तो आपको जिंदगी को अनुभव करने के लिए एक साल में 30 दिन का अतिरिक्त समय मिल जाएगा? पूरी दुनिया 12 महीने जीवन जीती है, लेकिन जिसने अपनी नींद को दो घंटे घटा लिया है, वह इसी अवधि में 13 महीने जीवन जीता है।

मैं इस नींद से बाहर कैसे निकलूं?

कृतज्ञता
अरबों लोग हर रात सोने जाते हैं, लेकिन उनमें से कई लोग अगली सुबह उठ ही नहीं पाते। इस वजह से जब भी आप अगली सुबह उठे, तब यह देखें कि इस पृथ्वी पर आपका समय खत्म नहीं हुआ है। आपको एक दिन की जिंदगी और मिल गई है। आपको इसे ईश्वर का शुक्रिया अदा करने के भाव से स्वीकार करना सीखना होगा।
हम सभी को जिंदगी में आखिरी दिन का अनुभव करना है और वह दिन बीता कल भी हो सकता था। लेकिन वह था नहीं। आप सिर्फ इसके लिए कृतज्ञ न रहे कि आप सुबह सकुशल उठ गए हैं, बल्कि यह भी देखें कि आपके परिवार के सभी सदस्य, आपके सभी करीबी भी अगले दिन की शुरुआत कर चुके हैं।
कृतज्ञता महसूस करने के बजाय हम सुबह उठाने वाले की आवाज सुनकर हम चिढ़ जाते हैं। यह कितना दयनीय है कि हम समझ ही नहीं पाते कि जगाने के लिए दी गई आवाज हमें दो बातें बताती हैं- पहली, हम जिंदा है और दूसरी, हमें जगाने वाला हमारा प्रिय भी जिंदा है। सृष्टि को धन्यवाद कहना सीखें। जिंदगी के लिए धन्यवाद कहना सीखें। आपकी जिंदगी के आज के लिए धन्यवाद कहना सीखें।

जागना और फिर उठना

हम सभी पहले जागते हैं और फिर उठते हैं। इसके बीच कुछ अंतराल रह जाता है। इसी अंतराल में आपकी जिंदगी और उस दिन की हार-जीत निहित होती है। हममें से ज्यादातर इसी अंतराल में मात खा जाते हैं। जागने और उठने के बीच के अंतराल में शरीर को हम दिमाग पर हावी होने का मौका देते हैं और फिर सो जाते हैं। यदि दिमाग हमारे शरीर पर काबू कर लेता है तो हम तत्काल बिस्तर छोड़कर दिन की तैयारी में लग जाते हैं।

क्या हम यह महसूस करते हैं कि जागने और उठने के बीच के अंतराल में समर्पण कर हम दिन की शुरुआत ही एक हार के साथ कर रहे हैं। आप उस दिन से क्या उम्मीद कर सकते हैं, जिसकी शुरुआत ही हार के साथ हुई हो? दिन का पहला अनुभव ही नकारात्मक रहता है। आप दिन में सकारात्मक सोच ही कैसे सकते हैं, जब दिन की शुरुआत ही नकारात्मकता के साथ हुई हो? हम अपने आप पर पहली छाप यह छोड़ते हैं कि हम अपने शरीर पर ही काबू नहीं पा सकते तो अपनी जिंदगी पर काबू कैसे पाएंगे? जब हम अपने आप से किए वादों को ही पूरा नहीं कर सकते तो हम अपने जीवन से क्या उम्मीद रख सकते हैं?

दूसरी तरफ, यदि हम इस अंतराल में जीत दर्ज करें तो हम जानते हैं कि दिन की शुरुआत तो कम से कम जीत के साथ हुई थी। हम जानते हैं कि हमने दिन की शुरुआत अपने शरीर पर काबू पाने के साथ की थी। हम महसूस करते हैं कि हम नींद की जिंदगी से अपने आपको बाहर निकालने की कोशिश कर रहे हैं। हम जानते हैं कि हम भोर के समय जागने की हमारी प्रवृत्ति को फिर हासिल कर रहे हैं, ताकि नए दिन के जन्म के जश्न में शामिल हो सके। हम समझते हैं कि हम अपनी जिंदगी में शरीर पर दिमाग का काबू रखना सीख रहे हैं। हर दिन के लिए एक उद्देश्य तय करो। मुझे व्यक्तिगत तौर पर लगता है कि दुनिया में कोई भी व्यक्ति आलसी नहीं है। लेकिन कुछ लोग हैं जिनके साथ महत्वपूर्ण लक्ष्य होते हैं और वह उन्हें हासिल करने के लिए प्रयत्नशील होते हैं। यदि दिन में कुछ काम करना है तो सबसे सुस्त आदमी भी जल्दी उठ जाता है। किसी प्रिय को रेलवे स्टेशन से लेने या किसी दोस्त बहुत सुबह एयरपोर्ट पर सी-ऑफ करने या सुबह जल्दी उठकर क्रिकेट मैच का प्रसारण देखने या ऐसा कोई काम करने, जिसमें आपकी सबसे ज्यादा रुचि हो... कभी भी वक्त आड़े नहीं आता। आप स्व-स्फूर्त होकर सुबह जल्दी उठते हैं और अपना काम करते हैं।

कई लोग ज्यादा घंटे सोते हैं क्योंकि उन्हें उस दिन कुछ खास काम नहीं होता। जब आपको सिर्फ ऑफिस काम की ही चिंता होती है, जो सुबह 10 बजे शुरू होने वाला है तो सुबह जल्दी उठने के लिए कोई प्रेरणा नहीं होती। यदि किसी घर में महिलाएं जल्दी उठ जाती हैं तो सिर्फ इसलिए कि उन्हें सुबह कुछ खास करना होता है। आपके पास सुबह कोई ऐसा काम होना चाहिए, जो आपको जागने के लिए प्रेरित करें। इसके बाद आपको उठने के लिए किसी बाहरी घड़ी की जरूरत नहीं रह जाएगी। आप अपने आप ही उठ जाएंगे।

दुर्बल लक्ष्यों वाली जिंदगी जीकर मानवीय क्षमताओं की ताकत को व्यर्थ न गंवाएं। अपनी कमजोरी से उबरने के लिए तकनीक पता करें

सबसे पहले आपको अपनी शब्दावली से 'अलार्म' शब्द को हटाना होगा। उसके स्थान पर 'वेक अप कॉल' (उठने का समय) शब्दों का इस्तेमाल करना शुरू करें। जिंदगी और नए दिन के लिए उठाने वाली आवाज को 'अलार्म' कैसे कह सकते हैं? इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि सुबह जल्दी कोई नहीं उठना चाहता, लेकिन दिन की शुरुआत में ही अलार्म कौन चाहेगा?

ऐसी घड़ी खरीदो जिसमें 'स्नूज' सुविधा हो। इस तरह की घडिय़ां आपके स्नूज' बटन दबाने के बाद भी थोड़ी-थोड़ी देर में बजती रहती हैं। ऐसे में यदि आपकी इच्छाशक्ति जवाब दे दें और पहली बार में आपकी नींद न खुलें तो भी यह घडिय़ां तब तक बजती रहेंगी जब तक कि आप उठकर उसे पूरी तरह बंद नहीं कर देते। आप टेलीफोन कॉल्स की मदद भी उठने में ले सकते हैं। ऐसे कॉल्स जो आपको उठने में मदद करें। आप 10-10 मिनट के अंतराल में उनका टाइम सेट कर सकते हैं। यदि आप इनमें से कुछ नहीं कर सकते तो अपनी पुरानी घड़ी को अपने बिस्तर से थोड़ी दूरी पर रखें। ताकि जब आप उसकी आवाज सुनें तो आपको उसे बंद करने के लिए उस तक जाना पड़े। लेकिन दूरी इतनी होनी चाहिए कि आपको घड़ी की आवाज आ जाए और उसे बंद करने के लिए आपको बिस्तर छोडऩा पड़े। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि आपको परिवार के अन्य सदस्यों को बताना होगा कि उस वेक अप कॉल को आपको ही हैंडल करने दें। उन्हें कह दें कि वे उस घड़ी को बंद न करें, वरना यह उनके लिए वेक अप कॉल हो जाएगा, आपके लिए नहीं।

मुझे इस तरह की तकनीक सुझाने में शर्मिंदगी महसूस हो रही है, लेकिन मेरा मानना है कि कमजोरियों के साथ जीने से अच्छा है कि उससे निपटने के लिए तकनीक की मदद ले ली जाए।

जल्दी सोएं
यदि आपको जल्दी उठने के लिए जल्दी सोना जरूरी है तो ऐसा ही करें। इसके लिए आपको देर रात तक चलने वाले टीवी प्रोग्राम्स या घरेलू गॉसिप्स से खुद को बाहर निकालना होगा। आखिरकार एक मनुष्य होने के नाते आपसे निशाचर होने की उम्मीद नहीं की जा सकती। आपको तो अगली सुबह से पहले जागना है। कृपया आप हर रात से कुछ समय चुराकर अगली सुबह निवेश करेंगे।
जल्दी उठने से आप उस अस्त-व्यस्त दिनचर्या से मुक्ति पा लेंगे, जो तकरीबन हर घर में आम है।
भोर से पहले उठना, आपकी जीवनशैली में सिर्फ यह एक बदलाव, आपके जीवन को पूरी तरह बदलकर रख देगा।

'जागने' और 'उठने' के अंतराल पर काबू पाने से ही आप अपने दिन पर काबू पा सकते हैं। दिनों पर काबू पाकर आप अपने जीवन पर काबू पा सकते हैं। 'जागने' और 'उठने' के अंतराल के दौरान आप यह आदतन शब्द 'सो जाओ... सो जाओ...' न सुनें और उसके बजाय उद्बोधन सुनें कि 'जागो... जागो...'

Tuesday 20 January 2015

अंत से नई शुरुआत

बार-बार टूटने-बिखरने के बाद भी कुछ लोग संभल कर दोबारा उठते हैं, विध्वंस के अवशेष से भी कामयाबी की नई इबारत लिखने वाले लोगों की शख्सीयत में आख्िार ऐसी क्या बात होती है कि बडी से बडी मुश्किल भी उनके हौसले पस्त नहीं कर पाती? जिंदगी के स्याह पहलू को भी चटख ख्ाुशनुमा रंगों से रौशन करने का जज्बा आख्िार इंसान के भीतर कहां से आता है? कुछ विशेषज्ञों और कामयाब शख्सीयतों के साथ यही जानने की कोशिश कर रही हैं विनीता।
जब सब कुछ ख्ात्म हो जाने की बात सोच कर हम गमगीन होते हैं, तब भी हमारे आसपास कुछ ऐसी सुंदर और सार्थक चीजें बची होती हैं, जिन्हें हम उदासी की धुंध की वजह से देख नहीं पाते। वक्त के साथ धुंध छंटने लगती है और उजास की एक नन्ही सी किरण हमें आगे बढऩे का रास्ता दिखाती है।
खोकर पाने का सुख
सच तो यह है कि जीवन में कुछ भी नष्ट नहीं होता, बल्कि जिसे हम अंत समझते हैं वह भी नई शुरुआत का ही एक जरूरी हिस्सा है। भले ही सब कुछ नष्ट हो जाए, पर अपनी दृढ इच्छाशक्ति के बल पर दोबारा पहले से कहीं ज्य़ादा बेहतर और सुंदर रचने का सुख कुछ और ही होता है। एक बार नहीं, बल्कि कई बार दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में लोगों ने इसे सच साबित कर दिखाया है। एप्पल कंपनी के सीईओ स्टीव जॉब्स के जीवन में एक ऐसा भी दौर आया जब बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के साथ होने वाले मतभेदों की वजह से उन्हें अपनी ही कंपनी से बाहर कर दिया गया, पर इससे भी उनके हौसले पस्त नहीं हुए। अगले पांच वर्षों में उन्होंने एक नई कंपनी 'नेक्स्ट एंड पिक्सर की शुरुआत की। आज यह दुनिया का सबसे बडा स्टूडियो है, जिसने पहली एनिमेटेड फीचर फिल्म 'टॉय स्टोरी का निर्माण किया था। फिर एप्पल ने स्टीव जॉब्स को वापस बुला लिया। कैंसर की वजह से 2011 में उनका निधन हो गया, पर अपने मजबूत इरादों की वजह से वह सभी के प्रेरणास्रोत बन गए।
प्रेरक प्रतिकूल स्थितियां
अब सवाल यह उठता है कि कुछ अच्छा और नया कर गुजरने के लिए हमारे भीतर प्रेरणा कहां से आती है? मनोवैज्ञानिक सलाहकार गीतिका कपूर के अनुसार, 'व्यावहारिक मनोविज्ञान का एक सिद्धांत है, जिसे 'रेस्पांस एफर्ट थ्योरी कहा जाता है। इसके अनुसार यह एक स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति है कि अनुकूल और आरामदेह परिस्थितियों में व्यक्ति अतिरिक्त प्रयास करने की कोशिश नहीं करता क्योंकि कुछ और ज्य़ादा या बेहतर हासिल करने के लिए उसे कहीं से कोई प्रेरणा नहीं मिलती। जीवन की कठिनाइयां हमें आगे बढऩे के लिए प्रेरित करती हैं। दुनिया भर में धूम मचाने वाले लोकप्रिय बाल साहित्य हैरी पॉटर सिरीज की लेखिका जे. के. रॉलिंग का जीवन इसका जीवंत उदाहरण है। तलाक के बाद एक छोटी बच्ची के साथ अकेले गुजारा करना उनके लिए बेहद मुश्किल था क्योंकि उनके पास कोई ऐसी प्रोफेशनल योग्यता नहीं थी, जिसके आधार पर उन्हें कहीं नौकरी मिल पाती। लिखने के सिवा कोई दूसरा काम आता नहीं था, बस पूरी तन्मयता से लिखना शुरू किया। बेहद तंगहाली और उदासी के दिनों में प्रकाशित 'हैरी पॉटर के पहले संस्करण ने पूरी दुनिया में धूम मचा दी और आज विश्व की प्रमुख अमीर स्त्रियों में उनका भी नाम शुमार होता है।
चलने का नाम है जिंदगी
जीवन में कुछ भी खोने की पीडा असहनीय होती है। फिर भी अपने दुखों को छोडकर आगे कदम बढाने की हिम्मत तो जुटानी ही पडती है। बाधाओं की वजह से कुछ पल के लिए ठहराव जरूर आता है, पर इसका मतलब यह नहीं है कि हम इसे अपनी जिंदगी का स्थायी हिस्सा बना लें। जितनी जल्दी हो सके हमें अपने दुखों से उबरने की कोशिश करनी चाहिए। मनोवैज्ञानिक सलाहकार गीतिका कपूर आगे कहती हैं, 'जिन लोगों का सेल्फ एस्टीम मजबूत होता है वे जल्द ही दुखद मनोदशा से बाहर निकल आते हैं। इसके विपरीत जो लोग कमजोर दिल के होते हैं वे प्रतिकूल स्थितियों के आगे घुटने टेक देते हैं। ऐसे लोगों को बाहरी सपोर्ट सिस्टम की जरूरत होती है, जिसमें उनके दोस्त, रिश्तेदार और पडोसी शामिल हो सकते हैं। ऐसी स्थिति में करीबी लोगों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे दुखद मनोदशा से बाहर निकलने में उस व्यक्ति की मदद करें, पर इसके लिए उसके मन में खुद भी आगे बढऩे का हौसला होना चाहिए।
सिखा जाती हैं चुनौतियां
जीवन में उतार-चढाव तो आते ही रहते हैं, पर सामने आने वाली हर मुश्किल को पूरी जिंदादिली से चुनौती के रूप में स्वीकारना हमें बहुत कुछ सिखा जाता है। कठिनाइयों से लडकर सीखा गया सबक इंसान कभी नहीं भूलता। दिल्ली के वरिष्ठ नागरिक हरभजन सिंह कहते हैं, 'मैंने अपने परिवार को दो बार उजडकर बसते देखा है। देश के विभाजन के वक्त मैं नौवीं कक्षा में पढता था। जान बचाने के लिए हमारे पिता हमें साथ लेकर रातोरात दिल्ली चले आए। लंबे समय तक हमें रिफ्यूजी कैंप में रहना पडा। लाहौर में हमारे पिताजी मेवे के थोक व्यापारी थे, लेकिन यहां आने के बाद उन्होंने फुटपाथ पर रुमाल और कंघी बेचने का काम किया। मेरी पढाई छूट गई और मैं भी उनके साथ मिलकर काम करने लगा। फिर धीरे-धीरे पैसे जुटा कर कपडों की एक छोटी सी दुकान खोली। हमारी मेहनत के साथ आमदनी भी बढऩे लगी और देखते ही देखते हम दो दुकानों के मालिक बन गए। हम बेहद ख्ाुश थे, लेकिन 1984 के दंगे में हमारी दोनों दुकानें जल कर ख्ााक हो गईं। हम दोबारा उसी हाल में पहुंच गए जहां से हमने 1947 में शुरुआत की थी। उस वक्त मैं बहुत उदास था तो पिताजी ने मुझे समझाया कि हम तो इससे भी बडी मुसीबतें झेल चुके हैं, तब तो हमारे पास एक तिनका भी नहीं था। अब कम से कम अपना घर तो है। फिर हमने अपने घर से ही दोबारा बिजनेस की शुरुआत की और नए उत्साह के साथ काम में जुट गए। पुराना अनुभव इस बार बहुत काम आया। आज हमारा अपना एक्सपोर्ट हाउस है। मुझे ऐसा लगता है कि अगर मन में मुश्किलों से लडकर आगे बढऩे का हौसला हो तो दुनिया की कोई भी ताकत हमें रोक नहीं सकती। हमने एकजुट होकर मेहनत की और आज हम अपने परिवार के साथ बेहद ख्ाुश हैं।
ख्ाुद से कैसी बेरुख्ाी
परिवार, समाज और देश से प्यार करना निश्चित रूप से बहुत अच्छी बात है, लेकिन इससे भी ज्य़ादा जरूरी यह है कि व्यक्ति पहले ख्ाुद से प्यार करना सीखे। यह सुनकर कुछ लोग भ्रमित हो जाते हैं कि यह तो स्वार्थी बनाने वाली बात हो गई, पर वास्तव में ऐसा नहीं है। ख्ाुद से प्रेम करके कोई इंसान स्वार्थी नहीं बनता। जब वह स्वयं स्वस्थ और प्रसन्न नहीं होगा तो दूसरों की मदद कैसे कर पाएगा? कई बार जीवन में ऐसी कठिन स्थितियां आती हैं, जब चारों ओर अंधेरा दिखाई देता है। ऐसे में थक-हार कर चुप बैठने से कुछ भी हासिल नहीं होगा।
डॉ. वनिता अरोडा देश की पहली महिला कार्डियक इलेक्ट्रोफिजियोलॉजिस्ट हैं। यह चिकित्सा विज्ञान की ऐसी विधा है, जिसमें दिल की असामान्य धडकनों को नियंत्रित करना सिखाया जाता है। इसकी मदद से लोगों को हार्ट स्ट्रोक की वजह से होने वाली असामयिक मौत से बचाया जा सकता है। डॉ.वनिता को यह मकाम यूं ही हासिल नहीं हुआ। इसके लिए उन्हें काफी संघर्ष करना पडा। वह बताती हैं, 'जब मैं एम.बी.बी.एस. फाइनल ईयर की छात्रा थी, तभी मेरा विवाह हुआ और एक साल के भीतर ही सडक दुर्घटना में मेरे पति का निधन हो गया। उसके बाद ससुराल वालों ने मेरी पढाई छुडवा कर मुझे घर में बंद कर दिया। दो वर्षों तक घरेलू हिंसा झेलने के बाद मुझे ऐसा लगा कि बस, अब और नहीं। मुझे ऐसी जिंदगी से मुक्ति चाहिए। इसलिए मैं अपने माता-पिता के पास वापस लौट आई और दोबारा नए उत्साह से पढाई में जुट गई। अंतत: मुझे अपनी जिंदगी को फिर से संवारने में कामयाबी मिली। आज मैं जो कुछ भी हूं उसमें मेरे माता-पिता का बहुत बडा योगदान है।
साथी हाथ बढाना
जब सब कुछ बिखर जाए तो उसे अकेले समेटना बहुत मुश्किल होता है। भले ही कुछ लोग इसका सारा श्रेय ख्ाुद को देते हों, पर वास्तव में ऐसा नहीं होता। हम ख्ाुद को समाज से पूरी तरह अलग करके नहीं देख सकते। हमारे जीवन में अच्छा या बुरा जो कुछ भी चल रहा होता है, उसमें हमारे परिवार, रिश्तेदारों, दोस्तों, कलीग्स और आसपास के पूरे माहौल का बहुत बडा योगदान होता है। दिल्ली विश्वविद्यालय की समाजशास्त्री
डॉ. शैलजा मैनन कहती हैं, 'हम जिस समाज में रहते हैं, हमारे विचारों और जीवन पर उसका गहरा प्रभाव पडता है। मुश्किल वक्त में एक-दूसरे की मदद करना सहज स्वीकार्य सामाजिक व्यवहार है, जो सदियों से चला आ रहा है। भले ही आजकल ऐसा माना जाता है कि पश्चिम की तरह हमारे समाज में भी लोगों की सोच व्यक्तिवादी होती जा रही है। इसलिए वे एक-दूसरे की मदद करने से कतराते हैं। छोटी-छोटी परेशानियों को लेकर कुछ हद तक यह बात सच हो सकती है, पर जब भी कोई अपना किसी बडी मुश्किल में होता है तो आज भी लोग ख्ाुद उसकी सहायता के लिए आगे आते हैं। जरूरी नहीं है कि हमेशा किसी की आर्थिक सहायता ही की जाए। कई बार अपनों का भावनात्मक संबल भी इंसान के लिए बहुत बडा सहारा बन जाता है।
ख्ाूबसूरत है जिंदगी
जरा सोचिए अगर हमारे जीवन में हमेशा सब कुछ बहुत अच्छा और आरामदायक होता तो क्या तब भी हम इससे शिकायत नहीं करते? जरूर करते। जिंदगी चाहे हमें कितनी भी ख्ाुशियां दे, उससे शिकायत करना हमारी आदत है। आख्िार क्यों होता है ऐसा? इस सवाल के जवाब में मनोवैज्ञानिक सलाहकार डॉ. अशुम गुप्ता कहती हैं, 'आपने महसूस किया होगा कि जो लोग अपनी पर्सनल या प्रोफेशनल लाइफ में बहुत ज्य़ादा व्यस्त रहते हैं, उनके पास अपनी जिंदगी को लेकर शिकायत करने का वक्त नहीं होता। वहीं दूसरी ओर ढेर सारी सुख-सुविधाओं के साथ जिनके पास भरपूर ख्ााली वक्त होता है, डिप्रेशन जैसी समस्याएं वैसे लोगों को ज्य़ादा परेशान करती हैं। जब इंसान के ख्ााली दिमाग के सामने कोई लक्ष्य न हो तो वह सुस्त, उदास और परेशान हो जाता है। शायद आपको यह जानकर ताज्जुब होगा कि युवा पीढी के कुछ लोग हमारे पास यही शिकायत लेकर आते हैं कि इमोशनल चैलेंज न होने की वजह से उनकी लाइफ बोरिंग हो गई है। दरअसल अति व्यस्त जीवनशैली में युवाओं का दिमाग बहुत तेजी से काम रहा होता है। वे रिश्तों से जुडी अपनी भावनात्मक समस्याओं को आसानी से सुलझा कर आगे बढ जाते हैं। ऐसे में इमोशनल चैलेेंज का न होना कई बार उन्हें ख्ाालीपन का एहसास कराता है। अब सवाल यह उठता है कि क्या वाकई हमारी जिंदगी शिकायतों का पुलिंदा है? नहीं, बिलकुल नहीं। तमाम तल्ख्ा-मुलायम एहसासों के बावजूद यह हर हाल में बेहद ख्ाूबसूरत है, बस इसे देखने के लिए हमें अपना नजरिया बदलना होगा। ख्ाुशी के मीठे एहसास को महसूस करने के लिए गम का कडवा घूंट पीना जरूरी है, वरना ज्य़ादा मिठास भी इंसान को बीमार बना देती है।
बहारें फिर भी आएंगी
बहुत पुरानी कहावत है कि अच्छे की तरह बुरा वक्त भी बीत ही जाता है। परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है। रात चाहे कितनी ही अंधेरी क्यों न हो पर कुछ घंटों बाद सुबह हो ही जाती है। अकेले उदास ठूंठ पेड की शाखों पर भी वसंत के आते ही नन्ही कोपलें फूट पडती हैं। समय के साथ सब ठीक हो जाएगा, यही उम्मीद हमें सूखे पौधों को भी सींचना और मुश्किलों भरी जिंदगी से कुछ पल चुराकर मुसकराना सिखाती है। इस संदर्भ में प्रख्यात कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता की ये पंक्तियां बरबस हमारे दिलों को छू जाती हैं और इसी के साथ हम नई शुरुआत का आगाज करें-
डालियों पर विश्राम करते पक्षी
और काटती लहरों बीच एक रिश्ता है
जो पेड के गिरने और पक्षियों के उड जाने पर भी टूटता नहीं
हर अंत से जुड जाती है
एक नई शुरुआत।
मजबूत इरादों के साथ आगे बढता रहा
अब लोग यह कहने लगे हैं कि शाहरुख्ा का दौर बीत गया। ऐसी बातें सुनकर भी मैं किसी तरह का दबाव महसूस नहीं करता, बल्कि मुझे हंसी आती है। पिछले 20 वर्षों से मुझ पर ऐसे ही नेगेटिव कमेंट्स किए जा रहे हैं। जब भी कोई नया या पुराना अभिनेता आगे आता है तो मीडिया के अनुसार मैं ख्ात्म हो जाता हूं। ऐसे में ख्ाुद को यही समझाता हूं कि मैं लोगों की नजरों में रहता हूं, इसीलिए वे मेरे बारे में तरह-तरह की बातें करते हैं। पिछले बीस वर्षों से हर साल एक-दो ऐसे प्रसंग जरूर होते हैं, जब मेरे ख्ात्म होने की बात चलने लगती है। पहले कहते थे कि इसे भाग्य भरोसे कामयाबी मिली है। फिर कहने लगे कि यह ओवरसीज का हीरो है। फिर यह भी बात चली कि एक्शन का जमाना आ गया है। नए हीरो इसे उडा देंगे। फिर अमित जी से तुलना होने लगी। वह बहुत शर्मिंदगी की बात थी। लोग कहने लगे 'डॉन कर लिया तो अपने आप को क्या समझता है? मुझे याद है जब रितिक आए थे तो एक समाचार पत्रिका में यह ख्ाबर छपी थी कि अब तो शाहरुख्ा ख्ात्म हो गया। मुझे यह सब सुन कर अच्छा नहीं लगता। बच्चे बडे हो गए हैं। वे पढते हैं तो उन्हें भी बुरा लगता है। मेरे लिए हर फिल्म में एक परीक्षा होती है। मैं बहुत कम फिल्में करता हूं, पर जो भी करता हूं, उसे बहुत यकीन से करता हूं। आपसे इतना वादा करता हूं कि अपनी दुकान चलाता रहूंगा। मेरा यह उसूल है कि जब भी कोई नई फिल्म करूं तो एक कदम आगे बढूं। मैं तो बस, इतना ही जानता हूं कि लोग मेरे बारे में नकारात्मक बातें करके मेरा मनोबल तोडऩे की चाहे कितनी ही कोशिश क्यों न करें, पर इससे मेरे इरादे कमजोर नहीं पडेंगे। मैंने बहुत मुश्किल दौर भी देखा है। कई बार ऐसा लगा कि सब कुछ खत्म हो गया, पर मैंने हिम्मत जुटाई और कटु अनुभवों को भुला कर आगे की ओर बढता रहा। अगर इरादे मजबूत हों तो अंत से भी नई शुरुआत की जा सकती है।
सीखनी होगी ख्ाुश रहने की कला
रितिक रोशन, अभिनेता
मैं मानता हूं कि हर इंसान के जीवन में एक न एक दुखद कहानी जरूर होती है। यह उस पर निर्भर करता है कि वह उसे सुखद कैसे बनाता है। सभी की जिंदगी में एक ऐसा दौर जरूर आता है, जब अचानक सब कुछ बदल जाता है। कुछ ऐसे निर्णय भी लेने पडते हैं, जो बहुत मुश्किल होते हैं। मेरे जीवन में भी ऐसा वक्त आया जब मुझे ईमानदारी से आत्मविश्लेषण करने की जरूरत महसूस हुई। तब मैंने ख्ाुद को समझाया कि अब मुझे अपने मन को मजबूत बनाना होगा। पुरानी यादें पीछा नहीं छोड रही थीं, पर मैंने ठान लिया था कि मुझे उनसे बाहर निकलना होगा। तब मैं खुद से यही सवाल पूछता था कि अपनी जिंदगी को बेहतर कैसे बना सकता हूं? इस बीच मैं समाज से कट कर अकेला और अलग-थलग पड गया था। सुबह देर तक सोता रहता। अपनी ऐसी आदतें सुधारने के लिए सबसे पहले मैंने सुबह जल्दी उठकर जिम जाना और दोस्तों से मिलना-जुलना शुरू किया। मैं एक डायरी भी मेंटेन करता था, जिसमें रोजाना रात को सोने से पहले यह लिखता कि अपनी जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए आज मैंने क्या किया? तलाक जैसी दुखद स्थितियों के लिए मानसिक तैयारी बहुत जरूरी है। मुझे ऐसा लगता है कि अब मेरी जिंदगी में चाहे कितनी ही मुश्किलें क्यों न आएं, मुझ पर उनका कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं पडेगा। मेरा मानना कि जिंदगी की चुनौतियों का सामना करने के लिए हमेें हर हाल में ख्ाुश रहने की कला सीखनी होगी।
ख्ाुद पर भरोसा है मुझे
मंदिरा बेदी, अभिनेत्री
यह 2007 की बात है। मुझे क्रिकेट पर आधारित कार्यक्रम 'एक्स्ट्रा इनिंग्स होस्ट करने का मौका मिला था। क्रिकेट फैन होने के नाते मैं बेहद ख्ाुश थी, लेकिन क्रिकेट के बारे में किसी स्त्री का बोलना शायद लोगों को अच्छा नहीं लगा। हर तरफ मेरी साडिय़ों और ब्लाउजेज के चर्चे थे। अखबारों से लेकर टीवी चैनल्स तक हर जगह लोग मेरे ऊपर अश्लील कमेंट्स कर रहे थे। फिर मेरी तिरंगे वाली साडी को लेकर तो देश में बवाल ही मच गया। लोगों ने शो में मेरी मौजूदगी को बडे ही नकारात्मक तरीके से लिया। दरअसल आलोचना मुझे बुरी नहीं लगी, पर उनका अंदाज मुझे पसंद नहीं आया। वह मेरे जीवन का सबसे बुरा दौर था, इन बातों से मैं अपना कॉन्फिडेंस खो बैठी। मैं इतनी बुरी तरह डर गई थी कि मुझमें स्टेज और मीडिया का सामना करने की हिम्मत नहीं थी। उस दौर में मैंने पब्लिक गैदरिंग्स में आना-जाना छोड दिया था। जहां भी जाती, हर तरफ सिर्फ यही बातें होतीं। उस घटना से मेरा कॉन्फिडेंस ख्ात्म हो गया और मुझमें दुनिया का सामना करने का साहस नहीं रहा। कई बार लगा कि मेरी शख्सीयत यहीं ख्ात्म हो गई, लेकिन मेरे पति राज ने हमेशा मेरा मनोबल बढाया। उनके सहयोग से मेरा खोया हुआ आत्मविश्वास लौट आया। अब मुझे ख्ाुद पर पूरा भरोसा हैै।
मुश्किलों से डरा नहीं
इमरान हाशमी, अभिनेता
मेरी पर्सनल और प्रोफेशनल लाइफ में काफी उतार-चढाव आए, पर मैंने मुश्किलों के आगे हार नहीं मानी। करियर के शुरुआती दौर में एक अभिनेत्री ने फोटो सेशन के बाद मेरे साथ फिल्म करने से मना कर दिया था। समीक्षकों ने मेरे लुक का मजाक उडाते हुए मुझे बी ग्रेड फिल्मों का स्टार कहा। उन्होंने यह भी कहा कि मेरी फिल्में सिर्फ छोटे शहरों में ही चलती हैं। फिल्मी करियर में मैंने बहुत रिजेक्शन झेला, तीखी आलोचनाएं सहीं, पर मैंने ठान लिया था कि इनसे डर कर पीछे नहीं हटूंगा। ऐसी बातों की परवाह किए बगैर मैं अपने कार्यों में व्यस्त रहा और कई हिट फिल्में दीं। मुझे ऐसा लगा कि अब जिंदगी अपनी पटरी पर वापस लौट रही है, पर शायद नियति को कुछ और ही मंजूर था। जब मुझे अपने बेटे अयान की बीमारी के बारे में मालूम हआ तो उस वक्त ऐसा लगा कि मेरी जिंदगी तबाह हो गई, पर मैंने ख्ाुद को संभाला। सोचा कि मैं अपने बच्चे के लिए अच्छे से अच्छे इलाज का प्रबंध करूंगा। इसके बाद अपनी भावनाओं को नियंत्रित करके उसकी देखभाल में जुट गया। उसे इलाज के लिए केनेडा ले गया। दरअसल उसके ब्रेन में ट्यूमर था, जो कैंसर में तब्दील हो चुका था। वहां के अस्पतालों में ऐसा नियम है कि मरीज चाहे किसी भी उम्र का हो, पर उसे उसकी बीमारी के बारे में सब कुछ सच-सच बताना होता है। तब उसकी उम्र मात्र साढे तीन साल थी। हमारे लिए यह बेहद कठिन कार्य था। फिर भी हमने दिल कडा करके अपने बच्चे को धीरे-धीरे उसकी बीमारी के बारे में बताया। हम उसके सामने सहज रहते , पर उस वक्त दिल पर जो बीत रही थी, उसे शब्दों में बयां कर पाना मुश्किल है। बस, केवल यह सोच कर हम ख्ाुद को दिलासा दे रहे थे कि सही समय पर बीमारी का पता चल गया और इसी वजह से उसका इलाज संभव है। उसी दौरान मुझे शूटिंग के लिए इंडिया आना पडा। उसे वहां छोडकर आना मेरे लिए बेहद मुश्किल था। यहां आने के बाद मैं दो सप्ताह तक सो नहीं पाया। इंशा अल्लाह अब वह बिलकुल ठीक है। जिंदगी के उस बुरे दौर ने मुझे मजबूत इंसान बनाया। अगर हमारी इच्छाशक्ति मजबूत हो तो जीवन में कुछ भी हासिल किया जा सकता है।
ख्ात्म नहीं होतीं चुनौतियां
अमन त्रिखा, गायक
करियर बनाने के लिए मैं दिल्ली से मुंबई आया। ख्ाूब मेहनत करता था। ऑडिशन के लिए जहां भी जाता अपने हिसाब से बहुत अच्छी परफॉर्मेंस देता, लेकिन कहीं भी मेरा चुनाव नहीं होता। सब मेरी तारीफ करते, लेकिन कोई भी चांस नहीं देता। तब मैं यही सोचता कि आख्िार उनमें ऐसा क्या है, जो मुझमें नहीं है? मैं टीवी के रिअलिटी शो 'इंडियन आइडल में भी शामिल था, लेकिन वहां मुझे शुरू में ही आउट कर दिया गया। वह मेरे लिए बेहद दुखद अनुभव था, लेकिन उस बुरे वक्त ने भी मुझे बहुत कुछ सिखाया। इसी बीच मुझे दूसरे म्यूजिकल शो 'सुरक्षेत्र में जाने अवसर मिला, वहां आशा जी, रूना लैला, आबिदा परवीन, हिमेश रेशमिया और आतिफ असलम जैसे महान कलाकारों के सामने मुझे अपना हुनर दिखाने का मौका मिला। इसी के बाद हिमेश जी ने मुझे पहला ब्रेक दिया और मुझे गाने मिलने लगे। 'गो गो गो गोविंदा... और 'हुक्का बार... जैसे गाने लोगों की जुबान पर चढ गए। मेरा मानना है कि जिंदगी में चुनौतियां कभी खत्म नहीं होतीं। कामयाबी मिलने के बाद उसे संभालना भी बहुत बडी चुनौती है। इसलिए अब मैं पहले से भी ज्य़ादा मेहनत करता हूं।
संघर्ष के बिना सफलता कहां
अमिताभ बच्चन, अभिनेता
जीवन में बिना संघर्ष के कुछ भी हासिल नहीं होता। कई बार हमारे सामने ऐसे मुश्किल दौर भी आते हैं, जब हमें कठोर फैसले लेने पडते हैं। जीवन में यह उतार-चढाव तो लगा ही रहता है। मैंने कभी भी अपने फैसलों के बारे में ज्यादा नहीं सोचा। मेरे पिता जी ने कहा है, 'जो बीत गई, वो बात गई। चाहे सुखद हो या दुखद । अपने हर अनुभव से कुछ न कुछ सीख जरूर लेता हूं। हर कठिन दौर से बाहर निकलने के बाद मैंने यह समझने की कोशिश जरूर की कि आख्िार संकट के वे क्षण मेरे जीवन में क्यों आए? अगर आप मुझसे पूछें कि क्या आप अपना जीवन दोबारा ऐसे ही जीना चाहेंगे या उसमें परिवर्तन लाना चाहेंगे तो मेरा जवाब होगा, मैं उसे वैसे के वैसे ही जीना चाहूंगा। जिंदगी में हमसे कई बार गलतियां होती हैं, पर उनसे हमें बहुत कुछ सीखने को भी मिलता है। हमारी इंडस्ट्री में रूप, कला और बॉक्स ऑफिस तीनों की बराबर अहमियत है। इन्हें समेटकर ही कोई फैसला लिया जाता है। हो सकता है कि मुझ में कुछ त्रुटियां रही हों, जिनकी वजह से मुझे काम न मिला हो। बीच में दो-तीन वर्षों तक मैंने कोई काम नहीं किया। हां, मैंने जो संन्यास लिया था, वह मुझे नहीं लेना चाहिए था। मेरा मानना है कि एक बार चलायमान हो गए तो हमें चलते रहना चाहिए। अनिश्चय का माहौल हमारे व्यवसाय में हमेशा बना रहता है। आगे भी ऐसा ही रहेगा। अब मैं वृद्ध हो गया हूं । मुझे नौजवानों की भूमिकाएं तो मिलेंगी नहीं। वृद्धों की भूमिकाएं सीमित होती हैं। फिर भी मेरे अनुकूल जो भीे काम मिलेगा उसे जरूर करूंगा।
साबित किया है ख्ाुद को
अरुणिमा सिन्हा, पर्वतारोही
अपने कॉलेज के दिनों में मैं वॉलीबॉल टीम की चैंपियन थी। एक बार रेल यात्रा के दौरान बदमाशों ने मेरे गले की चेन खींचने की कोशिश की और विरोध करने पर मुझे चलती ट्रेन से नीचे फेंक दिया। मैं गंभीर रूप से घायल हो गई और मेरा बांया पैर काटना पडा। जब मैं अस्पताल में भर्ती थी तो मुझे मालूम हुआ कि टीवी पर मेरे बारे में ऐसी ख्ाबरें चल रही हैं कि मैं बेटिकट यात्रा कर रही थी और टिकट चेकर को देखकर ट्रेन से नीचे कूद गई। लोगों ने मेरे प्लेयर होने पर भी सवाल उठाया। उनका कहना था कि मैं अपने इलाज के लिए खिलाडिय़ों को दी जाने वाली सुविधाओं का गलत फायदा उठा रही हूं। ऐसे झूठे आरोपों से मुझे गहरा सदमा पहुंचा। तभी मैंने यह सोच लिया कि मुझे कोई ऐसा बडा कार्य करना होगा ताकि मेरी सच्चाई पर सवाल उठाने वाले लोगों का मुंह बंद हो जाए। इसीलिए मैंने माउंट एवरेस्ट पर जाकर तिरंगा फहराने का निर्णय लिया। उत्तरकाशी स्थित नेहरू इंस्टीट्यूट ऑफ माउंटेनियरिंग से पर्वतारोहण का बेसिक कोर्स किया। मेरे इस सपने को साकार करने में टाटा स्टील एडवेंचर फाउंडेशन की अध्यक्ष और देश की पहली महिला पर्वतारोही बछेंद्री पाल का बहुत बडा योगदान रहा है। मई 2013 में माउंट एवरेस्ट पर तिरंगा फहराने केबाद जब मैं अपने घर अंबेडकर नगर (उ.प्र.) वापस लौट रही थी तो बारिश के बावजूद सैकडों की तादाद में लोग फूल-मालाएं लेकर मेेरे स्वागत में खडे थे। अपने प्रति लोगों का ऐसा स्नेह देखकर मेरी आंखें भर आईं। मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि मेरा सपना सच हो गया है। मैं िफजिकली चैलेंज्ड लोगों का दर्द समझती हूं। इसलिए उनके लिए स्पोट्र्स अकेडमी स्थापित करना चाहती हूं, ताकि वहां उन्हें अच्छी ट्रेनिंग दी जा सके। मुझे पूरा यकीन है कि मेरा यह सपना जरूर सच होगा।

Friday 16 January 2015

शंकर की तीसरी आँख और शिवलिंग...

शंकर की तीसरी आँख और शिवलिंग.....


नेत्र, नयन या आँखें, हमारे शरीर का बहुत ही महत्वपूर्ण अंग...इसका सीधा संपर्क न सिर्फ शरीर से अपितु, मन एवं आत्मा से भी है...जो मनुष्य शरीर से स्वस्थ होता है उसकी आखें चंचल, अस्थिर और धूमिल होती हैं, परन्तु जिस व्यक्ति का सूक्ष्म शरीर अर्थात आत्मा स्वस्थ होती है उसकी आँखें स्थिर, तेजस्वी और प्रखर होतीं हैं....उनमें सम्मोहने की शक्ति होती है...हममें से कई ऐसे हैं जो आखों को पढना जानते हैं ...आँखें मन का आईना होतीं हैं...मन की बात बता ही देतीं हैं...
आँखों की संरचना की बात करें तो इनमें...१ करोड़ २० लाख ‘कोन’ और ७० लाख ‘रोड’ कोशिकाएँ होतीं हैं , इसके अतिरिक्त १० लाख ऑप्टिक नर्वस होती है, इन कोशिकाओ और तंतुओ का सीधा सम्बन्ध मस्तिष्क से होता है 
स्थूल जगत को देखने के लिए हमारी आँखें बहुत सक्षम हैं परन्तु सूक्ष्म जगत या अंतर्जगत को देख पाने में जनसाधारण के नेत्र कामयाब नहीं हैं....परन्तु कुछ अपवाद तो हर क्षेत्र में होते ही हैं...और ऐसे ही अपवाद हैं हमारे प्रभु भगवान् शंकर...जो इस विद्या में प्रवीण रहे...भगवान् शंकर की 'तीसरी आँख' हम सब को दैयवीय अनुभूति दिलाती है...सोचने को विवश करती है कि आख़िर यह कैसे हुआ...?
बचपन में सुना था कि तप में लीन शंकर जी पर कामदेव ने प्रेम वाण चला दिया था, जिससे रुष्ट होकर उन्होंने अपनी तीसरी आँख खोल दी और कामदेव भस्म हो गए..सच पूछिए तो इस लोकोक्ति का सार अब मुझे समझ में आया है ...जो मुझे समझ में आया वो शायद ये हो...भगवान् शंकर तप में लीन थे और सहसा ही उनकी कामेक्षा जागृत हुई होगी...तब उन्होंने अपने मन की आँखों को सबल बना लिया और  अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर अपनी काम की इच्छा को भस्म कर दिया..इसलिए ये संभव है कि प्रत्येक व्यक्ति के पास तीसरी आँख है, आवश्यकता है उसे विकसित करने की..विश्वास कीजिये ये काल्पनिक नहीं यथार्थ है ..यहाँ तक कि इसका स्थान तक निश्चित है...
जैसा कि चित्रों में देखा है ..भगवान् शंकर की तीसरी आँख दोनों भौहो के बीच में है...वैज्ञानिकों ने भी इस रहस्य का भेद जानने की कोशिश की है और पाया है कि ..मस्तिष्क के बीच तिलक लगाने के स्थान के  ठीक नीचे और मस्तिष्क के दोनों हिस्सों के बीच की रेखा पर एक ग्रंथि मिलती है जिसे ‘पीनियल ग्लैंड’ के नाम से जाना जाता है...यह ग्रंथि  गोल उभार के रूप में देखी जा सकती है, हैरानी की बात यह है कि इस ग्रंथि की संरचना बहुत ज्यादा हमारी आँखों की संरचना से मिलती है...इसके उपर जो झिल्ली होती है उसकी संरचना बिल्कुल हमारी आखों की 'रेटिना' की तरह होती है...और तो और इसमें भी द्रव्य तथा कोशिकाएं, आँखों की तरह ही हैं...इसी लिए इसे 'तीसरी आँख' भी कहा जाता है...यह भी कहा जाता है कि सभी महत्वपूर्ण मानसिक शक्तियाँ इसी ‘पीनियल ग्लैंड’ से होकर गुज़रतीं हैं...कुछ ने तो इसे Seat of the Soul यानी आत्मा की बैठक तक कहा है...सच तो यह है कि बुद्धि और शरीर के बीच जो भी सम्बन्ध होता है वह इसी 'पीनियल ग्रंथि' द्वारा स्थापित होता है... और जब भी यह ग्रंथि पूरी तरह से सक्रिय हो जाती है तो रहस्यवादी दर्शन की अनुमति दे देती है...शायद ऐसा ही कुछ हुआ होगा भगवान् शंकर जी के साथ...  
पीनियल ग्रंथि
'पीनियल ग्रंथि' सात रंगों के साथ साथ ultraviolet अथवा पराबैगनी किरणों को तथा लाल के इन्फ्रारेड को भी ग्रहण कर सकती है, इस ग्रंथि से दो प्रकार के स्राव निकलते हैं ‘मेलाटोनिन’ और DMT (dimethyltryptamine)...यह रहस्यमय स्राव मनुष्य के लिए जीवन दायक है....यह स्राव anti-aging में सहायक होता है...मेलाटोनिन हमारी नींद के लिए बहुत ज़रूरी है...इसका स्राव बढ़ जाता है जब हम बहुत गहरी नींद में होते हैं....मेलाटोनिन और DMT मिलकर – सेरोटोनिन का निर्माण करते हैं ,  इसलिए 'पीनियल ग्रंथि',  सेरोटोनिन उत्पादन का भंडार है, इसी से मस्तिष्क में बुद्धि का निर्माण और विकास होता है....मानसिक रोगों के उपचार में 'सेरोटोनिन' ही काम में लाया जाता है..
प्रकृति में भी बहुत सी चीज़ें हैं जिनमें 'सेरोटोनिन' प्रचुर मात्रा में पाया जाता है...जैसे केला, अंजीर, गूलर इत्यादि...अब मुझे लगता है, शायद भांग और धतूरे में भी ये रसायन पाया जाता हो...क्यूंकि शंकर भगवान् उनका सेवन तो करते ही थे...आज भी उन्हें भांग, धतूरा और बेलपत्र ही अर्पित किया जाता है...
भगवान् गौतम बुद्ध को ज्ञान की  प्राप्ति बोधी वृक्ष के नीचे हुई थी...यह भी संभव है कि उस वृक्ष के फलों में 'सेरोटोनिन' की मात्रा हो...जो सहायक और कारण बने हों, जिससे उन्हें 'बोधत्व' प्राप्त हुआ...

'पीनियल ग्लैंड' पर शोध और खोज जारी है..हम सभी जानते हैं कि हमारा मस्तिष्क बहुत कुछ करने में सक्षम है..परन्तु हम उससे उतना काम नहीं लेते...हमारे मस्तिष्क का बहुत बड़ा हिस्सा निष्क्रिय ही रह जाता है...और बहुत संभव है कि उसी निष्क्रिय हिस्से में 'तीसरे नेत्र' अथवा 'छठी इन्द्रिय' का  रहस्य समाहित हो...जिसके अनुभव से साधारण जनमानस वंचित रह जाता है....
चलते चलते एक बात और कहना चाहूँगी...शिवलिंग को अक्सर लोग, पुरुष लिंग समझा करते हैं...लेकिन गौर से 'पीनियल ग्लैंड' को देखा जाए तो इसकी आकृति गोल और उभरी हुई है,  शिवलिंग की  संरचना को अगर हम ध्यान से देखें तो क्या है उसमें....एक गोलाकार आधार, जिसमें उभरा हुआ एक गोल आकार, जिसके एक तरफ जल चढाने के बाद जल की निकासी के लिए लम्बा सा हैंडल...अब ज़रा कल्पना कीजिये मस्तिष्क की संरचना की ..हमारा मस्तिष्क दो भागों में बँटा हुआ है..दोनों हिस्से  अर्धगोलाकार हैं  और 'पीनियल ग्लैंड' ठीक बीचो-बीच स्थित है अगर हम मस्तिष्क को खोलते हैं तो हमें एक पूरा गोलाकार आधार मिलता है और उस पर उभरा हुआ 'पीनियल ग्लैंड'...किनारे गर्दन की तरफ जाने वाली कोशिकाएँ निकासी वाले हैडल की तरह लगती हैं...
अब कोई ये कह सकता है कि फिर इसे शिवलिंग क्यूँ कहा जाता है...ज़रूर ये सोचने वाली बात है... लेकिन..सोचने वाली बात यह भी है कि ...'पीनियल ग्लैंड' का आकर लिंग के समान दिखता है...और कितने लोगों ने 'पीनियल ग्लैंड' देखा है ? आम लोगों को अगर बताया भी जाता 'पीनियल ग्लैंड' के विषय में तो शायद वो समझ नहीं पाते...वैसे भी आम लोगों को किसी भी बात को समझाने के लिए आम उदाहरण और आम भाषा ही कारगर होती है...मेरी समझ से यही बात हुई होगी.. और तथ्यों से ये साबित हो ही चुका है कि भगवान् शिव औरों से बहुत भिन्न थे...बहुत संभव है उनके भिन्न होने का कारण उनका विकसित, और उन्नत 'पीनियल ग्लैंड' ही हो...और जैसा मैंने ऊपर बताया, बहुत हद तक सम्भावना यह भी हो कि शिवलिंग विकसित 'पीनियल ग्लैंड' का द्योतक हो, ना  कि पुरुष लिंग का...और यह बात ज्यादा सटीक भी लगती है...